E L
जमीन पर किसी एक व्यक्ति का मालिकाना हक नहीं ..डॉ नरेश*
आज दिनांक 17 /12/2020 को स्थानीय चंद्रकांता महाविद्यालय पीर बियाबानी बुलंदशहर में खेती जमीन व किसान से संबंधित विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया संगोष्ठी के मुख्य वक्ता डॉ नरेश चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ थे अध्यक्षता डॉ विशाल शर्मा केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश रहे एवं विशिष्ट अतिथि डॉक्टर मीनू चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ थी मुख्य वक्ता डॉ नरेश ने अपने उद्बोधन में कहा कि,खेती से भारत का रिश्ता हज़ारों वर्ष पुराना है।सबसे पुराना ग्रंथ माने जाने वाले ऋग्वेद में इसका उल्लेख है और बाद में इतिहास की सभी किताबों में खेती और कृषकों का हवाला लगातार मिलता है।एक लंबे अरसे तक हवा और पानी की ही तरह मिट्टी यानि ज़मीन पर भी किसी एक व्यक्ति का मालिकाना हक़ नहीं होता था।मतलब जो अपने परिश्रम से जितनी ज़मीन जोत ले उतनी ज़मीन उसकी मान ली जाती थी।सिद्धांततः राज्य की सारी ज़मीन राजा की थी।आबादी की तुलना में ज़मीन बहुत थी,सो भूस्वामित्व को लेकर किसी बड़े विवाद की गुंजाइश नहीं थी।राजा दूसरे राज्य पर आक्रमण करके एक दूसरे के राज्य की ज़मीन पर हक़ जमाते थे,पर ज़मीन पर खेती करने वाला किसान इस सबसे बहुत प्रभावित नहीं होता था।धीरे-धीरे भूस्वामित्व के रिश्तों में बदलाव हुए।राजा की ओर से ज़मींदार,ठेकेदार आदि ज़मीन पर हक़ जमाने लगे,हालाँकि इन सबकी नज़र बिना मेहनत किए हुए ही किसान से उसकी मेहनत का एक हिस्सा लेने हड़प लेने पर होती थी।लगान ही राज्य की आमदनी का मुख्य ज़रिया थी जिसे राजा अपने ज़मींदारों वग़ैरह की मदद से वसूल करता था।ये टैक्स या लगान दस फ़ीसदी से लेकर चौथाई या कभी-कभी आधी उपज तक पहुँच जाता था।
विशिष्ट अतिथि डॉ विशाल शर्मा केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश ने कहा कि खेती मौसम पर टिकी थी,सो कभी सूखा कभी अतिवृष्टि की मार किसान को ही झेलनी पड़ती थी।शासक उदार होता तो कभी-कभी लगान में छूट दे देता था या फिर माफ़ भी कर देता था।
आर्थिक गतिविधियों में बुनियादी बदलाव अंग्रेज़ों के आने के बाद शुरू हुआ।जब किसानों को मालिकाना हक़ भी मिलने लगा।हालाँकि बिचौलियों का दख़ल अब भी कम नहीं था ,कारण कि ज़्यादातर ज़मीनों पर उन्होंने ही क़ब्ज़ा किया हुआ था।रैय्यत,बटाईदार किराएदारों या टेनेंट्स आदि इसी दौर की श्रेणियाँ हैं।
भूमि सुधारों को लेकर देश में बहुत लंबे समय से माँग उठती रही है।भू-संबंध समाज में इंसान की हैसियत और भूमिका दोनों तय कर देते थे।यहाँ तक कि किसानों के सपने भी इनसे ही तय होते थे।कितनी भी मेहनत कर ले,किसान का सपना एक सीमा को लांघने से असमर्थ रहता था।ज़्यादा से ज़्यादा वो अच्छी फसल का सपना देख सकता था।अच्छी बारिश का सपना देख सकता था या फिर लगान माफ़ी का भी।ज़मींदार और बिचौलिए बिना मेहनत किए ही किसान की मेहनत लूटते रहे।हिंदुस्तान में मेहनत किए वगैर पलने वाले ज़मींदारों,सूदख़ोरों और साहूकारों का एक लगभग संगठित तिलिस्म फैला हुआ था जो अभी तक क़ायम है।शासन की छत्रछाया में ये लोग अपनी अनंत पीढ़ियों तक ऐश्वर्य का जीवन जीते रह सकते हैं।उनका ऐश्वर्य किसान की मेहनत का ही हिस्सा है।
बहुत कम लोगों को यह बात मालूम होगी कि शूद्र-सवर्ण या दलित-शोषक की लोकप्रिय शब्दावली और नैरेटिव से बहुत पहले जिस व्यक्ति ने आधुनिक भारत में सबसे पहले इस नासूर को पहचाना और इस पर शोध किया वे बाबा साहब अंबेडकर थे।उन्हें अनेक विषयों में डाक्टरी की उपाधि मिली लेकिन उनकी पहली शोध भारत में भूस्वामित्व,भूसंबंध और भूमि सुधारों पर केन्द्रित थी।आज़ादी से पहले बाबा साहब ने इस विषय पर गंभीर शोध करके एक पुस्तक लिखी थी।यह पुस्तक भूमि सुधारों के मामले में भारत के योजनाकारों के लिए बाइबिल सरीखी रही है।जब योजना आयोग के पचास वर्ष पूरे हुए तो योजना आयोग ने इस पुस्तक को बड़ी धूमधाम से प्रकाशित किया था।योजना आयोग हमारे दफ़्तर के सामने था और मैं उन दिनों लगभग रोज़ाना दूरदर्शन पर कार्यक्रम बनाता था जिनमें योजना आयोग के सदस्या आदि आते रहते थे।ये पुस्तक और अन्य बहुत सी सामग्री उन दिनों सहज उपलब्ध हो जाती थी।उन दिनों मुझे ये जानकर बहुत आश्चर्य हुआ था कि जिस व्यक्ति को दलितों का मसीहा कहा जाता है और जिसे दलित-स्वर्ण संघर्ष के प्रथम पुरुष के रूप में की जाती रही है,उसकी सबसे अहम चिंता भूमि सुधारों को लेकर थी।जिसे आज अधिकांश भारतीय जानते भी नहीं।भूसंबंधों पर बाबा साहब से बड़ा काम शायद ही किसी अन्य भारतीय ने किया हो।
अब न योजना आयोग है न ही भूमि सुधारों के लिए कोई आंदोलन।।भारत में सिर्फ़ एक राज्य पश्चिम बंगाल में भूमि सुधारों को लागू किया जा सका बाक़ी सभी राज्यों में इस दिशा में कोई गंभीर काम हुआ ही नहीं।भूदान के ज़रिये या जेपी वग़ैरह ने कुछ सांकेतिक सुधार करवाए गए,जो ज़ाहिर है अपर्याप्त थे और समस्या की जड़ पर प्रहार नहीं करते थे।
संविधान निर्माण के समय संविधान सभा ने एक नीति बनाई थी जिसके तहत संविधान सभा को सभी निर्णय सर्वानुमति से लेने की बाध्यता थी।यदि किसी विषय पर सबकी राय एक न हो तो मत विभाजन या वोट का सहारा नहीं लिया जा सकता था।ऐसी व्यवस्था विवादों को दूर रखने के नाम पर की गई थी।लेकिन मेहनत करने वाले और उसकी मेहनत पर मुफ़्त में पलने वालों के हितों की रक्षा संविधान सभा एक साथ कैसे कर सकती थी।संविधान सभा में देशी राज्यों के 93 प्रतिनिधियों के अलावा भी बहुत से सदस्य मेहनत न करने वाले हरामख़ोर वर्ग से ही आते थे।लिहाज़ा मेहनत करने वालों के हक़ में किसी भी विषय पर 'सर्वानुमति' बनना असंभव थी,सो ज़मींदारों और सूदखोरों के बुद्धिमान प्रतिनिधियों ने कुछ बेहतरीन काव्यात्मक रचनाशीलता का प्रयोग करके बस शब्दों में ही कुछ अच्छी-अच्छी बातें करके दुनिया का सबसे बड़ा संविधान बना डाला।यही वज़ह है कि 1787 में बने अमरीकी संविधान में 223 वर्षों में कुल 27 संशोधन हुए हैं जबकि सत्तर वर्षों में भारतीय संविधान में 101 संशोधन हो चुके हैं।
किसानों के साथ सरकार के टकराव के पीछे भूमि सुधार क़ानून का न होना एक अहम वजह है।भारतीय खेती के वर्तमान स्वरूप में सुप्रिया सुले या पी चिदंबरम जैसे लाखों तथाकथित 'किसान' भूमि के बहुत छोटे से हिस्से से या फिर गमलों में फूल उगाकर ही करोड़ों रुपयों की आमदनी दिखा सकते हैं,क्योंकि खेती से हुई आमदनी पर टैक्स नहीं लगता।दिल्ली के आसपास ऐसे बहुत से किसान बसते हैं जिनके महलनुमा मकानों के आगे एक से ज़्यादा बीएमडब्ल्यु ,और ऑडी कारें खड़ी होती हैं और जिनके बीपीएल कार्ड भी बने हुए हैं,जो सरकार से तरह-तरह की विधवा,वृद्धावस्था पेंशन,सम्मान निधि या कभी वापस न किए जाने वाले बैंक ऋण आदि लेते रहे हैं।आज़ाद भारत में भूसंबंधों का यह रहस्यलोक सरकार को विचलित नहीं करता वे काँटे से काँटा निकालने की कोशिश करती है।और कोई ऐसा क़दम उठाने से घबराती है जो पारदर्शी और न्यायसंगत हो।उसके सामने खेती का कार्पोरेटीकरण ही वह रास्ता है जिससे इस तिलिस्म को तोड़ा जा सकता है।किसान भी इस छल को भी पहचान रहे हैं और अपनी ताक़त को भी तौल रहे हैं।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रही डॉक्टर मीनू ने अपने उद्बोधन में कहा कि भारत और इंडिया की इस खींचतान में फ़िलहाल भारत बढ़त बनाए दिख रहा है।ये कारपोरेट जगत और भूस्वामियों की निर्णायक लड़ाई है।हालाँकि पूरे भारत में भूमि सुधार क़ानूनों को लागू किए बिना समानता,न्याय और साझा समृद्धि का सपना फिलहाल दूर की कौड़ी है प्राचार्य विप्लव ने समस्त वक्ताओं का आभार व्यक्त किया एवं समस्त महानुभावों को स्मृति चिन्ह से सम्मानित किया इस अवसर पर महाविद्यालय में डॉक्टर आशुतोष उपाध्याय हारुण खान मनोज कुमार कुमार अंक का योगदान सराहनीय रहा