फोटो गैलरी

चन्द्रकान्ता महाविद्यालय

भारत दुनिया के लिए एक अजूबा देश है-डॉ भूपेंद्र भाटी*
आज दिनांक 12/2/2020दिन बुधवार चंद्रकांता महाविद्यालय पिरबियावानी, में विचार गोष्ठि का आयोजन किया गया,कार्यक्रम के मुख्य वक्ता आई0 आई0 एम0 टी0 कॉलेज ग्रेटर नोएडा के शिक्षा विभाग के संकायाध्यक्ष डॉ0 भूपेंद्र भाटी जी रहे,उन्होंने अपने उद्धबोधन में कहा कि,भारत दुनिया के लिए एक अजूबा देश है।इतने अधिक विरोधाभासों के बावजूद भारत में दक्षिण एशिया के किसी भी देश के मुक़ाबले कहीं अधिक राजनीतिक स्थिरता रही है और शासन की जो व्यवस्था भारत में है,वह भी कमोवेश कामयाब ही कही जा सकती है।राजनीतिक चेतना के अभाव और घोर दारिद्रय से जूझते हुए भारतीय लोगों की प्राथमिकता किसी तरह ज़िंदगी की गाड़ी को खींचते रहना है।सत्ता में कौन आरूढ़ होता है इसका आम भारतीय पर पड़ने वाला प्रभाव नगण्य रहा है।वैसे भी सहस्राब्दी से सत्ता के समक्ष विनत रहकर जीने भर की भिक्षा मांगना भारतीय मानस की एक बुनियादी प्रवृत्ति रही है।ये सत्ताएँ प्राकृतिक हों,मिथकीय अथवा सत्ता के शीर्ष पर बैठा हुआ व्यक्ति, भारतीयों ने अपने मूल स्वभाव के अनुसार सबके समक्ष विनत होकर अपनी दुर्दशा के लिए अपने ही कर्मों का प्रतिफलन मानकर ‘जाहि विधि राखे राम’ के सूत्र को आत्मीकृत करते हुए सबको भक्तिभाव से स्वीकार किया।भारत इस तर्क को देते हुए गौरव का अनुभव करता है कि भारत दुनिया की सबसे बड़ा लोकतंत्र है।हालाँकि भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनाने में आम भारतीय की लोकतांत्रिक प्रणाली से निस्संगता और शासन से उसकी दूरी की बेहद अहम भूमिका रही है।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनियाभर में साठ से ज़्यादा देश औपनिवेशिक दासता से ‘मुक्त’ हुए और भारत के अलावा शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां के लोगों का जीवनस्तर इतना दारिद्रयपूर्ण हो जितना कि भारत का।जबकि इतने अधिक संसाधन थे और राजनीतिक चेतना से शून्यप्राय समाज जो शासन से कुछ भी पाने की अपेक्षा नहीं रखता था।
शासन के सामने किसी भी संभावित चुनौती से बचने और ‘राजनीतिक स्थिरता’ बनाए रखने के लिए विरासत में मिली कुछ नीतियाँ थीं जैसे अधिसंख्य आबादी को रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बस इतना ही स्थान छोड़ा जाए कि वह शासन पर कोई प्रश्नचिह्न न लगा सकें।चुनाव जैसे समारोह समय-समय पर होते रहें किंतु ये समारोह इतने भव्य,भड़कीले और मँहगे हों कि आम भारतीय ज़्यादा से ज़्यादा इसमें एक दर्शक की तरह हिस्सा ले सके।शिक्षार्थी स्वास्थ्य के क्षेत्रों में इतना ही निवेश किया जाए कि समाज से तीसरी और चौथी श्रेणी की नौकरियाँ पाने के लिए ही नौजवान जद्दोजहद करते रहें।दुनिया के सबसे बड़े बाज़ारों में से एक होते हुए भी स्वस्थ स्पर्धा के बजाय घरेलू सूदखोरों को ‘उद्योगपति’ बनाया जाए रौ इसके लिए सार्वजनिक संसाधनों को लगभग मुफ़्त में भारतीय सूदखोरों को सौंप दिया जाए।जिससे भारत में एक मज़बूत दलाल वर्ग का निर्माण हो और वह वर्ग सत्ता के सिंहासन को ठेलने में लगे मेहनतकश लोगों को नियंत्रित करने में सत्ता की मदद करता रहे।
महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ विप्लव ने कहा कि,सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने में भी अंग्रेजों के ही समान स्वातंत्र्योत्तर काल में भी शासन की भूमिका अपने पूर्व स्वामियों के ही समान रही।मसलन दहेज़ विरोधी क़ानून बनाकर शासन ने यह संदेश देने की कोशिश की गोया ऐसे क़ानून से दहेज़प्रथा को रोका जा सकेगा।दशकों से यह बात सिद्ध हो चुकी है कि इस क़ानून का दुरुपयोग अधिक हुआ है और लाखों लोगों को बिना किसी अपराध के वर्षों तक जेल में रहना पड़ा है।वैवाहिक हिसा,बालश्रम,बंधुआ मज़दूरी,एससी-एसटी एक्ट जैसे अनगिनत क़ानून हैं जिनमें आरोपी व्यक्ति को अपराधी मानकर ही उसे दंड दे दिया जाता है,और ख़ुद को निर्दोष साबित करते-करते उसकी आधी उम्र अदालतों के चक्कर काटते-काटते गुज़र जाती है।उत्तर प्रदेश सहित देश के अनेक राज्यों में ऐसे लोगों की संख्या कुछ लाख तक पहुँच चुकी है जिनको मृत घोषित करके उनकी संपत्ति पर दबंगों ने क़ब्ज़ा कर लिया है।मृत घोषित किए जा चुके ये लोग दशकों से सरकारी दफ़्तरों से लेकर अदालतों के चक्कर लगाते-लगाते वाक़ई इस दुनिया से कूच कर चुके हैं।देश की अदालतों में चार करोड़ से ज़्यादा मुक़दमे लंबित हैं,और चुनावों की ही तरह अदालती प्रक्रिया भी उतनी ही मँहगी है कि सीधा सादा शरीफ नागरिक बिना अपराध किए हुए ही अपराध को स्वीकार कर लेने में ही भलाई समझता है।
हमारे डिज़ाईन के लोकतंत्र में सत्ता और आम नागरिक के बीच जितनी गहरी खाई है वैसी खाई विश्व के किसी अन्य लोकतांत्रिक देश में नहीं है।जबकि सिद्धांततः लोकतांत्रिक शासन प्रणाली ,शासन का वह तरीक़ा है जिसमें मानवीय गरिमा को सबसे अधिक महत्व दिया गया है।कितने ही नौजवान आतंकी गतिविधियों में शामिल होने के शक में अपनी आँधी ज़िंदगी जेलों में गुज़ारने के बाद ‘बाइज़्ज़त ‘ बरी हो चुके हैं।ऊपर कही गई बातों के अलावा आरक्षकों नीति,सामंती दौर के तानाशाहों के समान सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए व्यक्ति द्वारा अमूर्त्त कारणों से किसी को नौकरी दे देना,कुछ लाख या करोड़ रुपयों की ‘मदद’ कर देना,बडी-बड़ी मूर्तियाँ लगाकर सैकड़ों करोड़ रुपयों को बहा देना जबकि आए दिन भूख के कारण प्राण त्यागने अथवा क़र्ज़ के कारण आत्महत्या करने की और चार वर्ष की बच्ची से लेकर अस्सी साल की वृद्धाओं के साथ बलात्कार की खबरें भी आती ही रहती हैं और टीवी पर एक मिनट में चालीस खबरें देखकर अपनी संवेदना गुट्ठल कर चुका नागरिक अपने आसपास हो रही इन घटनाओं से निस्संग हो चुका है ।
आश्चर्यजनक रूप से लाखों करोड़ रुपयों का हेर-फेर करने वाले आर्थिक अपराधियों के प्रति भी सरकारें न सिर्फ़ ख़ामोश रही हैं बल्कि क़ानूनन आर्थिक अपराधियों के नाम उजागर न हों,ऐसे प्रयास करती रही हैं।
एक आदमी भारत के एक भाग को स्थाई रूप से काटने के लिए अपने समर्थकों का आवाहन कर रहा है।उसके इरादे स्पष्ट हैं।जिस देश में लाखों लोग बिना किसी अपराध के जेलों में क़ैद हैं ,वहाँ देश के ध्वंस की कामना करने वाला एक शख़्स सरकार की पकड़ से बाहर है।एक जज कहता है कि उस शख़्स का अपराध संज्ञेय नहीं है,उसके ख़िलाफ़ दर्ज़ एफ़आइआर वापस ली जाएं ।वह जज अमरीका की किसी अदालत के किसी फ़ैसले की दुहाई देते हुए साबित करना चाहता है ये कि देश को काटने का आवाहन करने वाला आदमी की बोलने की आज़ादी है।शायद वह यह बात अदालत में भी साबित कर दे।इस जज ने देश के पिच्चानवे प्रतिशत लोगों को पहले ही ‘ईडियट ‘घोषित कर दिया है।
यह सब हमारे डिजाईन के लोकतंत्र का वास्तविक स्वरुप है।लोकतंत्र के इस ढंग की तुलना दक्षिण एशिया के किसी भी देश की किसी भी प्रकार की शासन प्रणाली से करके देखिए कि किस देश की सरकारें इतना सब वर्दाश्त करने का माद्दा रखती हैं।विरोध की जो और जितनी छूट भारत के वर्तमान ढंग के लोकतंत्र में है उसका सहस्रांश भी भारत के ही पड़ोसी भी सहन नहीं कर सकते।
व्यवस्था में कुछ न कुछ छेद रह ही जाते हैं।क़ानून भी ख़ूँख़ार से ख़ूँख़ार अपराधी को बचने के रास्ते भी मुहैया करा ही देता है।लेकिन बहुत सी चीजें सूरज की रोशनी की तरह साफ़ हैं।देश की सम्प्रभुता और अखंडता की रक्षा के लिए अगर संविधान की सामान्यतः प्रदत्त शक्ति से कुछ अधिक शक्ति की ज़रूरत भी पड़े तो राष्ट्रहित में राष्ट्र की रक्षार्थ राष्ट्रविरोधी शक्तियों का सफ़ाया करना सरकार की ज़िम्मेदारी है।भारत सरकार पश्चिम की विकसित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की नक़ल करके अपने बुनियादी दायित्व से मुँह नहीं मोड़ सकती।
अमरीका और पश्चिमी यूरोप में लोकतांत्रिक संस्थाओं का क्रमबद्ध विकास अनेक शताब्दियों में हुआ है।भारत की समस्याएँ और चुनौतियाँ पश्चिम से भिन्न हैं।लोकतंत्र इस मूलभूत विश्वास पर निर्मित शासनप्रणाली है कि लोगों में अपने लिए उपयुक्त प्रतिनिधि चुनने की योग्यता है और शासन में अपनी सक्रिय और प्रभावी भागीदारी के लिए आग्रहशीलता भी।ज़ाहिर है हमारे समाज को इस दिशा में अभी एक लंबा रास्ता तय करना है,अंत मे डॉ आशुतोष उपाधयाय ने आंगतुकों का आभार व्यक्त किया ,तथा डॉ भाटी को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया
इस अवसर पर महाविद्यालय का समस्त स्टाफ मौजूद था